गीता का व्यवहार दर्शन
सुख-प्राप्ति और दुःख-निवृत्ति सभी देहधारियों का ध्येय है | प्राणीमात्र की नाना प्रकार की चेष्टाओं का अंतिम लक्ष्य दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति होता है | पशु-पक्षियों में साधारणतया विचारशक्ति का विकास करता, किन्तु विवेक और नहीं होता, अतः वे केवल अपने शरीरों की तात्कालिक दुःख-निवृत्ति और सुख-प्राप्ति के लिए ही उद्यम करते हैं और उस उद्यम में सफलता होगी कि नहीं, अथवा उसका विपरीत परिणाम तो नहीं हो जायेगा अर्थात उससे सुख के बदले उलटा दुःख तो नहीं हो जायेगा, इत्यादी बातों पर विचार करने की उनमें योग्यता नहीं होती |
मनुष्य में विचार करने की शक्ति का विकास होता है, अतः वह पशु-पक्षियों की तरह अंधाधुंध उद्यम नहीं दूरदर्शिता से काम लेता है | कहा भी गया है –
आहारनिद्राभयमैथुनन्च, सामान्यमेतत्पषुभिर्णराणाम् |
ज्ञानं हि तेषामधिको विशेषो ज्ञानेन हीनाःपशुभिः समानाः
अर्थात – आहार, निद्रा, भय, तथा मैथुन क्रिया ये व्यवहार सामान्यतः मनुष्य एवं पशु में सामान दिखाई देती है किन्तु मनुष्य में ज्ञान ही एक विशेष है जो मनुष्य को पृथक करता है इसलिए ज्ञानहीन मनुष्य पशुतुल्य है |
मनुष्य केवल अपने शरीर की तात्कालिक दुःख-निवृत्ति और सुख-प्राप्ति से ही संतोष नहीं करता है किन्तु शरीर के अतिरिक्त मानसिक दुःख-निवृत्ति और सुक-प्राप्ति के लिए भी प्रयत्न करता रहता है | वह अपने शरीर के अतिरिक्त अपने कुटुंब आदि के सुखों के लिए भी उद्यम करता है | मनुष्यों में भी विचार-शक्ति के विकास की न्यूनाधिकता के अगणित दर्जे हते हैं और अपनी योग्यतानुसार दुःख-निवृत्ति और सुख-प्राप्ति के लिए सब कोई निरंतर उद्योग करते हैं | कई लोग तो विशेषतया अपने ही शरीर और मन कि इहलौकिक दुःख-निवृति और सुख-प्राप्ति के लिए उद्योग करते हैं; और कई भावुक लोग इहलौकिक सुखों को तुच्छ मानकर पारलौकिक सुखों के लिए इस देह के सुखों कि अवहेलना करके अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक कष्ट सहन करते हैं अर्थात मरने के बाद दूसरे जन्म में भौतिक सुखों कि प्राप्ति, अथवा मुक्ति प्राप्त करने की कामना से जप, तप,पूजा,पाठ, व्रत, उपवास, तीर्थाटन, दान, पुण्य, हवन, अनुष्ठान आदि अनेक प्रकार के कर्मकांडों में लगे रहते हैं और उनके लिए आवश्यक विधान किये हुए कठिन नियम पालन करने में हठपूर्वक सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास आदि शारीरिक पीडाएं एवं चिंता, भय, क्रोध आदि मानसिक कष्ट सहन करते हैं | परन्तु जिनकी बुद्धी अधिक विकसित हो जाती है, उनको दुःख-निवृत्ति और सुख-प्राप्ति के उपरोक्त प्रयत्न निरर्थक प्रतीत होते हैं, क्योंकि वास्तव में न तो उनसे दुःख की निवृत्ति होती है और न निरंकुश ( जिस सुख में पराधीनता अथवा परावलम्बन न हो), निरतिशय (जिस सुख से अधिक सुख कोई दूसरा न हो ),सच्चे एवं अक्षय सुख की प्राप्ति ही | सुख-भोग के पीछे उनके परिणाम में दुःख अवश्य होता है अतः वे सोचते हैं कि जिन स्वर्गादि सुखों की प्राप्ति के साथ दुःख निरंतर लगा ही रहता है वे दुःख मिश्रित सुख वास्तविक सुख कैसे हो सकते हैं और मरने के बाद की जिस मुक्ति की प्राप्ति के लिए जीवन काल में सारी आयु नाना प्रकार के नियमों और बंधनों में बितानी पड़े वह सच्ची मुक्ति कैसे हो सकती है ? सच्चा सुख अथवा मुक्ति तो वह है कि जिसके लिए मरने कि प्रतीक्षा न करनी पड़े, किन्तु जिसका अनुभव इसी संसार में इसी शरीर में तुरंत हो जाये अर्थात जीवन काल ही में सब प्रकार के दुखों और बंधनों की निवृत्ति हो जाय | इसलिए वो लोग दुःख निवृत्ति और सुख प्राप्ति के उपर्युक्त प्रयत्न निष्फल समझ कर दुखों की अत्यंत निवृत्ति, सच्चे और अक्षय सुख की प्राप्ति किस तरह हो सकती है इसका अचूक उपाय ढूंढ निकालने के लिए सुख-दुःख के यथार्थ स्वरूप उनके मूल कारण और उनके नाना प्रकार के सम्बन्ध एवं प्रभाव आदि में गहरा अन्वेषण करते हैं | अतः बुद्धिमान लोग अपने तथा जगत के अस्तित्व और उससे सम्बंधित विषयों पर तात्विक विचार करते हैं | इस तरह के सूक्ष्म-तात्विक विचारों को दर्शनशास्त्र कहते हैं; और उन तात्विक विचारों के आधार पर आचरण करने की विवेचना व्यवहार-दर्शन है |