श्री गीता जी का प्रधान विषय

श्रीमद्भागवद्गीता
श्री गीता जी का प्रधान विषय –
श्री गीता जी में भगवान ने अपनी प्राप्ति के लिए मुख्य दो मार्ग बतलाये हैं –
- सांख्य योग 2- कर्मयोग
सामान्यतः गीता की टीका-टिप्पणियों को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है | उनमें से कोई संन्यास मार्ग का प्रतिपादन कराती हैं, कई भक्ति मार्ग का; केवल कुछ ही ऐसी हैं जो कर्म मार्ग का समर्थन करती है | बाल गंगाधर तिलक जी द्वारा लिखित गीता-रहस्य में स्पष्ट है कि भगवान ने अपना उपदेश संन्यास के लिए नहीं अपितु अर्जुन के ह्रदय में कर्त्तव्य-बुद्धि तथा कार्य कि इच्छा उत्पन्न करने के लिए प्रदान किया था | अत्यंत प्रवाल कौरवों और उनके सेनापतियों की सेना को देखकर अर्जुन सहसा संन्यास की ओर प्रवृत होने लगे | उस समय परम आनंद घन प्रभुश्रीकृष्ण ने जो उस समय अर्जुन के रथ के सारथी थे, अर्जुन की निराशा और विषाद कि अवहेलना करते हुए अर्जुन का उत्साहवर्धन किया और अर्जुन को युद्ध की और अग्रसर किया | भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्ट किया है कि-
“काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः”
अर्थात – काम्य कर्मों के न्यास को ही ज्ञानी लोग संन्यास कहते हैं | संन्यास का अर्थ यह नहीं है कि मानव जाति की आधात्मिक तथा नैतिक उन्नति करने वाले कार्यों का त्याग किया जाय |
निष्काम तथा काम्य कर्मों को भिन्न-भिन्न मान कर गीता में निष्काम कर्म का समर्थन किया गया है |
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे |
श्री कृष्ण ने यज्ञ, दान, तप और कर्म के अनुष्ठान पर बहुत ही अधिक जोर दिया है और इसे अपना सबसे अधिक निश्चित तथा निर्दोष एवं यथाएथ सिद्धांत बतलाया है |
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् |
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ||
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फ़लानि च |
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ||
भगवान अर्जुन को इस बात की भी चेतावनी दी है कि किसी नियत कर्म का संस्यास के नाम पर त्याग नहीं किया जा सकता |
‘नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते’
तृष्णा, लोभ या कायाक्लेश के बहाने कर्त्तव्य से विमुख होना भगवान ने मोक्षार्थी के लिए अनुचित तथा निंदनीय समझा है |
गीता ने मुख्य कर्म के अनुष्ठान का ही उपदेश दिया है न कि संन्यास का | गीता उन सिद्धांतों का उपदेश करती है जो सब समयों तथा सब देशों के लिए उपयुक्त हैं | विश्व के विकास में इन सिद्धांतों का वही दृढ नियत स्थान है जो कि अविकृत मूल प्रकृति का, जिससे उत्पन्न होकर समस्त ब्रह्माण्ड अपने गर्भ में ज्ञान, सृष्टि, सभ्यता एवं उन्नति के बीज धारण करने वाले कमल के सामान प्रस्फुटित एवं विकसित हुआ है |
गीता के तत्वज्ञान ने संसार के स्वरूप के इस उच्चतम आदर्श का ऐहिक जीवन के ऐहिक कर्तव्यों से सामंजस्य किया है परन्तु, क्योंकि संसार एक कार्य से उत्पन्न दूसरे कार्यों के निरंतर एवं अविच्छिन्न प्रवाह का दूसरा नाम मात्र है, इसलिए मनुष्य के लिए यही सत्य एवं नियत कार्य है कि वह निर्भय एवं निःस्वार्थ होकर इस दिव्य नाटक में अपना कर्तव्य पूर्ण करे, जिस के तात्विक स्वरूप का ज्ञान उसी को होता है जिसने गीता एवं उपनिषदों का पूर्ण मनन किया है
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः |
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ||