यात्री अपनी संस्कृति की रक्षा खुद करें
किसी ने बैल को नहीं पूछा की संस्कृति व स्वाभिमान लादने के बारे मे तुम्हारा क्या ख्याल है?
बेचारे बैल को नहीं पता था की तमिल रणबांकुरे उससे लड़ने के लिए इस कदर आतुर है की पुरे तमिलनाडु में हाहाकार मचा देंगे.वह यह समज सकता , तो खुद ही आकर इन वीरों से कहता की भाई , मुझसे कुस्ती लड़ लो, लेकिन अपने ही घर में आग न लगाओ. वह बेचारा बैल केसे समजता की भाई लोग बात को इस तरह दिल पर ले लेंगें, वरना वह जरूर कहता की – आ इन्सान , मुझे मार. अच्छा ही हुआ की वह नहीं समज पाया की उसकी पीठ पर कितना बड़ा बोझ है, वरना वह इस एहसास के बोझ से ही दबकर कुचल जाता. कहते हैं की तमिल संस्कृति बहुत पुरानी है और तमिल भाषा को अपनी प्राचीनता की वजह से ‘क्लासिक ‘ भाषा का दर्जा मिला हुआ है.इसे पता था की यह प्राचीन संस्कृति एक बैल की पीठ पर लदी हुई है.
इब्ने इंशा की क्लासिक कृति उर्दू की आखरी किताब मे एक कहानी है, जो संछेप मे यह है की कुछ सोदागर गधों पर माल लादकर जा रहे थे की दूर से डाकुओं के आने की आहट सुनाई दी. सोदागर गधों से बोले की डाकू आ रहे हैं , भागो. गधे बोले – क्यों भागें , हमें क्या फर्क पड़ता है ? तुम हम पर माल लादते हो, डाकू भी माल लादेंगे . लेकिन संस्कृति का लदान ज्यादा गंभीर मसला है, इसमें जान जाने तक का खतरा रहता है. किसी ने भी बैल से नहीं पूछा की हमारे संस्कृति और स्वाभिमान लादने के बारे मे तुम्हारा क्या ख्याल है? गय से भी नहीं पूछा गया था. धर्म, संस्कृति और स्वाभिमान लादने से पहले भारवाही प्राणी से उसकी सहमती लेना अनिवार्य नहीं माना जाता. कभी भी मजबूत कन्धों वाले वीर पुरष यह बोझ नहीं उठाते.
यह सवाल इन वीरों से पूचा जाना चाहिए कि भाई, अगर तुम्हें अपनी संस्कृति की इतनी चिंता है ,तो इसे संभालकर अपने पास क्यों नहीं रखते? कभी-कभी लगता है कि एसे बोर्ड जगह -जगह लगवा दिए जाएँ कि यात्री अपनी संस्कृति की रक्षा खुद करें.लेकिन शायद, इन यात्रियौं की वास्तविक दिलचस्पी संस्कृती- रक्षा मे नहीं, उस बहाने हिंसा करने मे है, यही बात बैल नहीं समज सकता.
manish naithani