उत्तराखंड न्यूज़ताज़ा ख़बरेंदेश/विदेश

बैज्ञानिक भी अब इन फसलों को भविष्य की फसल का दर्जा देने लगे हैं।

1970 के दषक में चिपको आन्दोलन ने टिहरी की हेंवल घाटि से यह नारा दिया था- क्या हैं जंगल के उपकार,मिटटी पानी और बयार।मिटटी पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार। चिपको की सफलता के बाद 1980 के दशक में कुछ कार्यकताओं ने जव अपनी पारंपरिक खेती पर संकट महसूस किया तो उन्हे आभास हुआ कि रासायनिक खादें उनके खेतों को नशेबाज बना रही हैं। बीज और खाद के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ रहा है। उन्होने इस गम्भीर समस्या को देखते हुए एक आन्दोलन का सूत्रपात किया, जिसका नाम है बीज बचाओं आन्दोलन।80 के दशक मे ंजव हेंवलघाटी के कुछ सामाजिक कार्यकताओं को लगा कि आधुनिक खेती के नाम पर पारंपरिक खेती पर प्रहार किए जाने लगे तो उन्होने किसानो के बीच अभियान छेड़ने का मन बनाया। शुरूवात में तो किसानों को उनकी बात उचित नही लगी क्योंकि रासायनिक खादों से फसलें अच्छी उगने लगी लेकिन दो तीन साल बाद ही उत्पादन घटने लगा। अव किसानों को आभास होने लगा था कि यह स्वावलंवी खेती के साथ सडयंत्र रचा जा रहा है। वैज्ञानिको का इसमें उपयोग हो रहा है और इसके पीछे बड़ी बड़ी कम्पनियों का एक षडयंत्र छिपा हुआ है।

आन्दोलन से जुड़े कार्यकताओं के अनुसार पांरपरिक फसलें मनुष्य और पशुओं के लिए उपयोगी हैं, जो पहाड़ की जीवन पद्वति और संस्कृति हैं साथ ही खाद्य सुरक्षा और पोषण की गारंटी है, लेकिन उस दौरान विकास के नाम पर जो लोग आधुनिक खेती पर काम कर रहे थे उनसे भिड़ना भी आसान नही था। उनके पास सारे संसाधन थे वे बीज बचाओ आन्दोलन को विकास विरोधी कहने लगे।

आनदोलन के कार्यकर्ता लुप्तप्राय बीच प्रजातियों को ढूढंने में लग गये।इसके लिए वे सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में गये जंहा आज का कृषि विकास नही पंहुचा था।वंहा आशा की किरण नजर आई। वंहा कई बीजों की प्रजातियां मिल गई जो अन्य क्षेत्रों से लापता हो गई थी। कार्यकर्ताओं ने इन बीजों की एक एक मुटठी संकलन की और इन्हे लेकर अपने खेतों में उगाकर अगली फसल में अन्य किसानों को बीज फैलाये। इस तरह से ये बीज एक किसान से दूसरे के पास अदला बदली होने लगे।

बीच बचाओ आन्दोलन ने अपने प्रयोग में यह सिद्व किया कि खेती में सिर्फ उपज को ही नही देखा जाना चाहिए बल्कि लाभ लागत का तुलनात्मक ग्यान भी जरूरी है। पारंपरिक फसलों में लागत बहुत कम है। सिर्फ अनाज ही नही बल्कि पशुओं के लिए चारा भी देखा जाना चहिए। किसानों की समझ में यह बात आने लगी कि उन्नत बीजों के नाम पर धोखा रचा जा रहा है। उन्होने महसूस किया कि नये बीज अकेले नही आ रहे हैं बल्कि उनके साथ रासायनिक खाद और बीमारिया भी भेजी जा रही हैं। बीमारियों के साथ कीटनाषक और खरपतवार भी साथ भेजे जा रहे हैं।

बीज बचाओं आन्दोलन ने 1990 के दशक के शुरूवाती दिनों में डंकल और गैट प्रस्तावों के विरूद्ध प्रदर्शन व रैलियां भी निकाली। इसका सरकार पर भले ही कोई असर पड़ा हो या नही लेकिन लोगों का प्रशिक्षण जरूर हुआ है।लोगों ने पारंपरिक बीजों और जैविक खेती की ओर ध्यान दिया। आन्दोलन को पूरे उत्तराखण्ड में फैलाने के प्रयास भी हुए। आराकोट उत्तरकाषी हिमाचल सीमा से अस्कोट पिथोरागढ नेपाल सीमा तक कार्यकर्ताओं ने 5 हजार कीमी लम्बी यात्रा भी की। इस आन्दोलन ने अब तक धान की 350 प्रजातियो और गेंहू की 30 प्रजातियों की जानकारी हासिल की। जिनमें धान 100,गेहू 8, राजमा 200, मंडुआ 10, कुलथ 4,झंगोरा 8, भटट 6,लोभिया 7, नौरंगी 9, जौ 3, रामदान 3 और अन्य दलहन, तिलहन व साग सब्जी की दर्जनों प्रजातियां उगाकर उन्हे फैलाने का काम किया है। बैज्ञानिक भी अब इन फसलों को भविष्य की फसल का दर्जा देने लगे हैं।

आन्दोलन की शुरूवात जव हुई थी तव न तो पेटेंट शब्द का प्रचलन आम लोगों तक था और न जी एम बीज और नही टर्मिनेटर की चर्चा थी। आन्दोलन का उद्देश्य है कि हमे उन बीजों को उगाना चाहिए जिसमें खाद्य सुरक्षा और पोषण हो। पहाड़ो पर उगाई जाने वाली बारहनाजा खेती इसका एक सफल उदाहरण है। आज के आधुनिक विकास में लोगो को खाद्य पधार्थो को लेकर असुरक्षा महसूस होने लगी है। लोगो का रूझान अब जैविक भोजन के प्रति बढने लगा है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *


Warning: Undefined variable $var_ca82733491623ed9ca5b46aa68429a45 in /home/kaizenin/worldnewsadda.com/wp-content/themes/colormag/footer.php on line 132